नदवतुल उलमा


इन बुजुर्गों का दृढ़ विश्वास था कि इस्लाम एक सार्वभौमिक और शाश्वत धर्म है, रहती दुनिया तक इंसानों का मार्गदर्शन और उसकी दुनियावी और आख़िरत की कामियाबियों की गारंटी देता है और इसमें ज़िन्दगी के हर क्षेत्र के लिए मार्गदर्शन और हर मुश्किल का हल मौजूद है, इसलिए इंसानी दिमाग़ के विकास व पतन और इसके परिवर्तनों की विभिन्न मंज़िलों से इसका पाला पड़ना, बदले हुए हालात और विचारों में मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी निभाना और हर दौर में पैदा होने वाली शंकाओं को दूर करना इसके लिए एक स्वाभाविक बात है, ऐसे व्यापाक, सार्वभौमिक, सर्वांगीण और अमर धर्म के प्रचारक और उसको समझाने वाले लोग पैदा करने के लिए ऐसी प्रणाली और पाठ्यक्रम सम्पादित किया जाना चाहिए जिसका दायरा बराबर बढ़ता रहे, जो हर दौर में बदलते हुए हालात की ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता रखता हो और ज़िन्दगी का परिचय देता रहे, शिक्षा व्यवस्था उसी वक़्त लाभकारी और उपयोगी हो सकती है, जब वो आधुनिक और प्राचीन दोनों की खूबियों को अपने अंदर लिए हुए हो, सिद्धांतों और उद्देश्यों में सख़्त और बेलोच, छोटे छोटे दीनी मसलों में व्यापक और लचीली हो, प्रगतिशील हो, ज़माने की तब्दीलियों और ज़रूरतों के अनुसार (अपनी रूह, उद्देश्यों और मूल शिक्षाओं की हिफ़ाज़त के साथ) बदलती और तरक़्की करती रहे, यह वक़्त की एक अहम ज़रूरत थी और इसी में मुसलमानों के शिक्षण समस्याओं का हल था।
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